गुरुवार, 20 जून 2013

मेरे बोझिल हुए नैना मेरे कमरे की वो खिडकी,
तुम्हारी राह तकती है मेरे आंगन की मिट्टी भी।

                तुझे कुछ याद है बचपन मे हमने बीज बोया था,
                उसी इक नीम कि छांवों मे कटते हैं मेरे दिन भी।

कभी भूले से लिख दी थी जो तूने नाम पर मेरे,
मैं कितनी बार पढती हूं तेरी वो एक चिट्ठी भी।

                मेरे इस दर्द को जब भी कभी आराम होता है,
               तभी फिर से उभरते हैंंमेरे रंजो मसाइब भी।

वो परदेसी हुआ है रास्ता अब देखना भी क्या,
ना कोइ पहले लौटा और ना लौटेंगें साहिब भी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें