शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

ख़याल हो तुम

तुम्हें याद है वो दिन
जब भटक गए थे हम
शहर से दूर जंगल में
बरसात की तूफानी रात
और तुम्हारी बाहें
कहाँ कोई डर था मुझे
तुम थे न सायबान मेरे |

बारिश की हर बूँद
खीच रही थी एक रेखा
जो मेरे दिल से रास्ता थी
तुम्हारे दिल का
पानी की एक एक बूँद
मन की आग में घी की तरह
बढा रही थी लपटों को
और तुम
तुमने भी तो कहा था
"जल जाना चाहता हूँ
भीगे होंठों की आग से "
मेरे नैनो ने झुककर दी थी मौन स्वीकृति
तन ने तुम्हारी बाहों में समर्पण
और अधरों ने मांग लिया था
अधिकार अपना |


जाने खोया था सब कुछ या
सब कुछ पा लिया था उस दिन
अब जाती नहीं तुम्हारी सौंधी सी महक
सांसों से आँखों से दिल से और होंठों से भी
बस चले गए तो वो पल
जिन्हें बाँध न सकी आँचल के छोर से
लेकिन मैं महकूंगी सदा
तुम्हारी महक से
क्यूंकि बस तुम्हारी महक ही तो मेरी है


अब तुम कहो भटक गए थे ?
या पा लिया था मंजिल को
बाँहों से होकर
एक दुसरे की आँखों में |

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

ख्वाहिशें


दिन रात बरसे बादल बिखरे जहाँ में खुश्बू । 
इतनी खुदा ने बख्शी बहारों को ख्वाहिशें ॥ 

छूकर लबों को उसके ही इश्क़ निखरता है । 
छूकर उसी को निखरी निखारो की ख्वाहिशें ॥ 

महफ़िल में मुझको आकर इस तरह छेड़ती है । 
नज़रों ने दी हैं उनके इशारों को ख्वाहिशें ॥ 

चेहरे में उसके चन्दा के नूर की झलक है । 
आँखों में चमकती हैं सितारों की ख्वाहिशें ॥ 

मिलने से बेग़रज़ हैं और दूर भी नहीं। 
इतनी अता हुई हैं किनारों को ख्वाहिशें ॥ 

वो जान मांगते हैं जिनको दिल ये दे दिया । 
मौला मेरे अजब दी हमारों को ख्वाहिशें ॥